गेहूं की ऐसी किस्में विकसित हाे रही, जिससे तापमान बढ़ने पर भी बेहतर उत्पादन मिलता रहे।

अधिक तापमान में भी बेहतर उपज देने वाली गेहूं की किस्म विकसित कर रहे वैज्ञानिक

जलवायु परिवर्तन में बढ़ते तापमान से निपटने की तैयारी में लगे हैं वैज्ञानिक, गेहूं की ऐसी किस्में विकसित हाे रही, जिससे तापमान बढ़ने पर भी बेहतर उत्पादन मिलता रहे। पिछले कुछ वर्षों में मौसम के उतार-चढ़ाव का असर खेती पर भी पड़ा है, ऐसे में गेहूं की फसल पर बढ़ते तापमान का असर न पड़े, इसलिए वैज्ञानिक नई किस्में विकसित कर रहे हैं।

भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल के वैज्ञानिक गेहूं कुछ ऐसी ही किस्में विकसित कर रहे हैं, जिस पर बढ़ते तापमान का असर भी न पड़े और बेहतर उत्पादन भी मिलता रहे। गेहूं की नई किस्मों के बारे में संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. रतन तिवारी बताते हैं,

“हम आज की परिस्थिति के हिसाब से ही नई किस्मों का ट्रायल करते हैं, जैसे कि हम दो स्थिति में गेहूं की बुवाई करते हैं एक तो सामान्य मौसम में समय से और दूसरी पछेती गेहूं की किस्में की बुवाई करते हैं। जिन किस्मों की हम देर से बुवाई करते हैं, उनमें ज्यादा तापमान सहने की क्षमता होती है, इनमें बाली लगने के समय देखना होता है कि औसत तापमान क्या है। अगर उस समय दिन और रात का औसत तापमान 20 डिग्री से ज्यादा निकल जाए तो नुकसान शुरू हो जाता है और इसमें भी इस बात का ध्यान रखना होता है कि कितने दिनों तक अधिक तापमान रहा, क्योंकि कई बार होता है कि तापमान बढ़ा लेकिन हवा चल गई, जिससे तापमान नीचे आ गया।


वैज्ञानिक ऐसी किस्मों को विकसित कर रहे हैं कि “तीन दिनों तक अगर तापमान ज्यादा है तो यह बर्दाश्त कर लेती है, लेकिन अगर तीन दिनों से ज्यादा तापमान रहता है तो नुकसान हो सकता है। और अगर रात का तापमान भी बढ़ता है तो ज्यादा दिक्कत हो सकती है, क्योंकि दिन का तापमान कितना भी बढ़ जाए लेकिन रात का तापमान सामान्य हो जाता है। लेकिन अगर दिन और रात दोनों का तापमान ज्यादा है तो 15-30 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है, अब इसमें भी किस्म पर निर्भर करता है।” और कई जगह जहां सिंचाई वगैरह की व्यवस्था है वहां पर शाम को पानी लगा दिया तो खेत का तापमान नीचे गिर जाता है, जिससे उतना नुकसान नहीं होता है। वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसी किस्में विकसित की हैं, जिनकी बुवाई किसान कर रहे हैं और बेहतर परिणाम भी मिल रहा है। डॉ रतन बताते हैं, “हम पिछले कई साल से इस पर काम कर रहे हैं, जैसे कि डीबीडब्ल्यू 187 (करण वंदना), डीबीडब्ल्यू 303 (करण वैष्णवी) है डीबीडब्ल्यू 71 जैसी किस्में हैं इनमें हीट सहने की क्षमता है, नुकसान तो थोड़ा बहुत होगा लेकिन दूसरी किस्मों के मुकाबले कम होगा।”

उदाहरण के लिए डीबीडब्ल्यू 187 (करण वंदना) और डीबीडब्ल्यू 387 (करण वैष्णवी) दोनों संस्थान की नई किस्में हैं, जिनकी पैदावार 80 कुंटल प्रति हेक्टेयर (2.5 एकड़) के आसपास है। ये किस्में मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए उपयुक्त हैं। करण वंदना किस्म पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम जैसे उत्तर पूर्वी क्षेत्रों की कृषि भौगोलिक परिस्थितियों और जलवायू में खेती के लिए उपयुक्त है। सामान्यता गेहूं में प्रोटीन कंटेंट 10 से 12 प्रतिशत और आयरन कंटेंट 30 से 40 प्रतिशत होता है, लेकिन इस किस्म में 12 प्रतिशत से अधिक प्रोटीन 42 प्रतिशत से ज्यादा आयरन कंटेंट पाया गया है। संस्थान में अधिक तापमान सहने वाली किस्मों को विकसित करने के लिए नया प्रयोग किया जा रहा है। इसमें ऐसी प्रजातियों की पहचान की जाएगी जो अधिक तापमान सहन कर सकें। डॉ तिवारी इस प्रयोग के बारे में बताते हैं,

“हमने यहां पर नई किस्मों को बनाने के लिए स्ट्रक्चर बनाया। इसमें हम प्रयोग करेंगे। ये जो हमने स्ट्रक्चर बनाया है उसमें हम छोटे-छोटे भाग में अलग-अलग किस्मों को लगा देते हैं, और जैसे ही बालियां आनी शुरू होती है वैसे ही हम इस स्ट्रक्चर को पूरी तरह से बंद कर देते हैं, यह एक तरीके से पॉली हाउस या ग्लास हाउस की तरह का हो जाता है। इसके पहले वो खुला रहता है और अगर यह खुला रहता है तो जो बाहर का तापमान है वही अंदर का तापमान है।”


“इसे बंद करने पर अचानक से पौधों को शॉक मिलता है, हम करीब पांच डिग्री तक तापमान बढ़ाकर देखते हैं दिन रात के हिसाब से, जितना की बाहर का तापमान है उससे पांच डिग्री ज्यादा बढ़ा देते हैं। जैसे कि खेत में फसल लगी है और अचानक से लू चलने लगे तो पौधों पर असर पड़ता है, इसलिए जब धीरे-धीरे तापमान बढ़ता है तो पौधे उसी के हिसाब से ढाल लेते हैं,

“डॉ तिवारी ने आगे बताया। तापमान नियंत्रण सुविधा पूरी तरह से कंप्यूटर आधारित तकनीक है। इसमें कंट्रोल पैनल लगे हैं। जब गेहूं की बालियों में दाने बनने की प्रक्रिया शुरू होगी, तब इस संरचना में पौधों पर तापमान के प्रभाव का विवरण दर्ज कर लिया जाएगा। संरचना के अंदर व बाहर सेंसर लगे हैं। संरचना में पानी के प्रसार के लिए फव्वारे व वातानुकूलित यंत्र जैसे उपकरण लगाए हैं और वैज्ञानिक इसके अध्ययन में जुटे हैं। कई बार इनसे अच्छी किस्में निकल आती हैं।

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